गुरु जंभेश्वर भगवान का 573वां जन्मोत्सव आज: बिश्नोई समाज के 29 नियम, शादी में फेरे नहीं, जन्म के बाद मां से अलग रहता है बच्चा

हिसारएक घंटा पहले

  • कॉपी लिंक

बिश्नोई समाज का धार्मिक स्थल मुकाम, जो गुरु जंभेश्वर भगवान के 573वें जन्मोत्सव पर लाइटों से सजाया गया।

बिश्नोई पंथ के गुरु जंभेश्वर भगवान का 573वां जन्मोत्सव आज हिसार में मनाया जा रहा है। बिश्नोई पंथ की स्थापना 500 साल पहले गुरु जाम्भोजी ने की थी। उनका जन्म 1508 में हुआ था। गुरु जंभेश्वर अपने जीवन के शुरूआती सात साल तक कुछ भी नहीं बोले थे।

1515 में उन्होंने अपना वचन तोड़ा। 27 साल तक गुरु जंभेश्वर ने गोपालन किया। वे हरे वृक्षों को काटने एवं जीवों की हत्या को पाप मानते थे। वे हमेशा पेड़ पौधों वन एवं वन्य जीवों के रक्षा करने का संदेश देते थे। वे अपने अनुयायियों को शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करने का संदेश देते थे।

29 नियमों का पालन करता है बिश्नोई समाज
उन्होंने अपने अनुयायियों को 29 नियमों की पालना करने को कहा। इसमें से 9 नियम जानवरों की रक्षा के लिए हैं। सात नियम समाज की रक्षा के लिए हैं। इसके लिए 10 नियम खुद की सुरक्षा और अच्छे स्वास्थ्य के लिए हैं। बाकी चार नियम आध्यात्मिक उत्थान के लिए हैं। जिसमें भगवान को याद करना और पूजा पाठ करना है। जिसकी वजह से इस संप्रदाय का नाम बिश्नोई संप्रदाय पड़ा। इस समाज के लोग पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश में काफी संख्या में है।

मुकाम में समाधि स्थल
राजस्थान के बीकानेर जिले के नोखा में बिश्नोई धर्म का मुख्य मंदिर मुक्तिधाम मुकाम है। यहीं पर गुरु जंभेश्वर की समाधि स्थल है। इस जगह पर हर साल मेला लगता है। अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा का प्रधान कार्यालय भी मुकाम में स्थित है।

खेजड़ी को पवित्र पेड़ मानते
बिश्नोई संप्रदाय में खेजड़ी को पवित्र पेड़ माना जाता है। 1730 में राजस्थान के मारवाड़ में खेजड़ली नामक स्थान पर जोधपुर के महाराजा द्वारा हरे पेड़ों को काटने से बचाने के लिए अमृता देवी ने अपनी तीन बेटियों, आसू, रत्नी और भागू के साथ अपने प्राण त्याग दिए। उसके साथ 363 से अधिक अन्य बिश्नोई, खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए मर गए। बिश्नोई समाज में अमृता देवी को शहीद का दर्जा दिया गया है।

बिश्नोई समाज को प्रह्लादपंथी कहा जाता
जहां-जहां बिश्नोई बसाहट है वहां हिरण, मोर और काले तीतर के झुंड मिलेंगे। इनकी रक्षा के लिए यह पंथ अपनी जान तक दे देता है। बिश्नोई समाज को प्रह्लादपंथी कहा जाता है। यह भगत प्रह्लाद को मानते हैं। इसलिए होलिका दहन के दिन शोक मनाते हैं। उस दिन इनके घर में खिचड़ी बनती है।

इसी तरह इस समाज में पेड़-पौधे को काटना मना है। इसलिए मरने के बाद इन्हें जलाया नहीं जाता, बल्कि मिट्‌टी में दफना दिया जाता है। हर घर के आगे खेजड़ी का पेड़ होना भी जरूरी है।

जन्म और शादी के रीति-रिवाज भी अलग
गुरु जम्भेश्वर के भक्त घर या मंदिर में सुबह और शाम सिर्फ हवन करते हैं। गुरु जम्भेश्वर का कहना था कि कोई मूर्ति पूजा नहीं करनी है। घर में सुबह-शाम हवन करना है। बिश्नोई समाज में बच्चे का जन्म और शादी के रीति-रिवाज भी अलग होते हैं। बच्चा पैदा होने के बाद 29 दिन बच्चे और उसकी मां को अलग रखा जाता है।

बच्चे को पिलाया जाता पाहल
30वें दिन हवन होता है और पाहल-पानी रखा जाता है। गुरु जम्भेश्वर के 120 शब्दवाणी से इसे मंत्रित किया जाता है। इस पाहल को बच्चे को पिलाया जाता है, जिसे पीने से वह बिश्नोई हो जाता है। उसके बाद वह घर के अंदर आकर बाकी परिवार के साथ सामान्य जीवन जीता है।

पाहल एक मंत्र फूंका हुआ पानी, जिसे गंगाजल की तरह पवित्र मानते
दरअसल पाहल एक मंत्र फूंका हुआ पानी होता है, जिसे यह लोग गंगाजल की तरह पवित्र मानते हैं। बिश्नोई समाज में शादी के रीति-रिवाज भी अलग हैं। इनके यहां फेरे नहीं होते हैं। बल्कि दूल्हा और दुल्हन को दो अलग-अलग पीढ़े पर बैठा देते हैं। उनके सामने गुरु जम्भेश्वर की शब्दवाणी पढ़ी जाती है। पाहल की कसम खिलाई जाती है। बस शादी हो गई।

शव को जलाते नहीं उसे दफनाते हैं
बिश्नोई समाज पुनर्जन्म में यकीन नहीं रखता है। उसका मानना है कि कर्म के हिसाब से जो है इसी जन्म में है। इनकी पूजा इबादत जो है वह पर्यावरण से ही जुड़ी है इसलिए यह मरने के बाद शव को जलाते नहीं हैं बल्कि उसे दफनाते हैं।

खबरें और भी हैं…