भास्कर ओपिनियन-चुनाव परिणाम: हम सब की बस अब एक ही चिंता – आख़िर जीतेगा कौन?

4 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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राजनीतिक दलों के लिए ‘पूरे दिन’ चल रहे हैं। कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में इन दलों का जी मचल रहा है। सीटों की उल्टियाँ हो रही हैं। मन करता है – सागर से मोती छीन लें। दीपक से ज्योति छीन लें। पत्थर से आग लगा दें। सीने से राज चुरा लें। कुल मिलाकर पार्टियाँ हैरान हैं, लेकिन लोग इनसे भी ज़्यादा परेशान हैं। अंदाज़े ऐसे लगाते हैं जैसे वोटिंग मशीन के भीतर से ही निकलकर आए हों! सारे वोट गिन चुके। तमाम सीटों की थाह ले चुके। बस, रिज़ल्ट अब एक औपचारिकता भर रह गई है। यहाँ से तो वही जीतेगा।

उसकी हार तो पक्की ही समझो। देखा था – गाँव में, मोहल्लों में उनकी बसें चार बार आईं थीं। बसें भर- भरके ले गए थे। नाश्ता भी कराया था। गलियों में, चौराहों पर, बैठकों में एक ही बात। कौन जीतेगा? इसी बात पर, बात बढ़ जाती है। झगड़े तक पहुँच जाती है। एक- दो दिन अबोला रहता है। फिर वही, जीत, हार, सीटें और वोट। फिर झगड़ा। फिर अबोला। फिर बातचीत…।

वैसे हमारा इन नेताओं से कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भी लगे रहते हैं हिसाब लगाने में। जानते हैं उन्हें हमारी पड़ी ही नहीं है, लेकिन बात इन्हीं की करते हैं। फिर सोचने में आता है कि जब दिन – रात उनकी जीत- हार का इतना हिसाब लगाते फिरते हैं तो कुछ तो चाहत रहती ही है।

नहीं, हम यह नहीं चाहते कि ये नेता हमें चाहें! बस, इतनी सी चाहत रहती है कि कोई हमारा मुन्तज़िर हो। जब हम आएँ, कोई तो दरवाज़ा खोले। हम अपना ताला खुद ही खोलते- खोलते थक गए हैं। बस इतना चाहते हैं कि कोई पूछे- नमक चाहिए क्या? पानी पीएंगे क्या? हमें आख़िर चाहिए ही क्या? फ़क़त दो रोटियाँ। एक भुनी हुई मिर्ची! और कुछ भी नहीं। हम तो अपनी थाली भी खुद ही धोकर पी लेंगे। कहो तो बर्तन भी साफ़ कर देंगे। बस, इतना चाहते हैं कि हम आएँ तो कोई दरवाज़ा खोल दे, बस!

सही है, अब तो हम सब वोट दे चुके हैं। आप नेताओं का इसके बाद कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकते, लेकिन ये दरवाज़ा खोलने की इल्तिजा को कहीं हमारी मजबूरी मत मान लेना। क्योंकि अब तो ज़्यादातर सरकारें पूरे पाँच साल भी नहीं चला करतीं। ये चुनाव हैं। कभी भी आ टपकते हैं।

जानते हैं जंगल के चीतों से भी ज़्यादा जालिम हो तुम। ज़माने भर से नाखून तेज हैं तुम्हारे! मगर इस सब का कोई तो सिरा होगा? कितनी रातें और निगलोगे इन मजबूर रूहों को? सब समझते हैं जब जीतोगे, ठंडी रातों को दहशत से भर दोगे। तुम्हारी भूख शैतानी है। आख़िर कब मिटेगी? इसका कोई तो अंत होगा? कहाँ पर ख़त्म होगी?

खैर, ये हुई नेताओं की बात। जब जीतेंगे, हमारी तरफ़ से मुँह मोड़ लेंगे। हमेशा से ऐसा ही होता आया है। आगे भी ऐसा ही होता रहेगा, क्योंकि हमें अपनी ताक़त का अंदाज़ा नहीं है। समय ऐसे ही गुजरता जाएगा, क्योंकि इस उम्र तक, इस जमाने में बहुत से सूरज बुझ चुके। सैकड़ों चाँद सो गए! आख़िर अपनी बाँहें चढ़ाकर कोई वक्त को कब रोक पाया है?

नेता आएँगे। उसी तरह हाथ जोड़ेंगे। हम उन्हें जिता देंगे और वे मंत्री बनकर फिर हमारी जेब में हाथ डालेंगे। दरअसल, हम उनसे कभी कह ही नहीं पाए कि ना, हमारी जेब में हाथ मत डालो तुम! वो सिर्फ़ हमारी है। किसी और का दखल जायज़ नहीं है इसमें। बहुत सी चीजें पड़ी हैं इस जेब में। हमारी बैंक बुक, हमारे क़र्ज़े,और लेटर्स भी। हमारी जो मुश्किलें हैं, उन्हें तुम हल कर नहीं सकते। वो रहने दो।

तुम्हारी दोस्ती काफ़ी है बस। तुम्हारी चीजों की चिंता हम नहीं करते। हमारी चिंता तुम भी मत करो! हमारे दरमियाँ ये आसमाँ, बिन बादलों के, साफ़ रहने दो। वो काफ़ी है।

मौजूदा हालात पर कहना ग़लत नहीं होगा कि …फौलाद के बूट हैं सियासतदानों के! चींटियों का रोना आख़िर किसने सुना है?

बहरहाल, हाल जो भी हों, नेता और आम आदमी का रिश्ता जो वर्षों से चला आ रहा है, ऐसा ही रहना है। सरकारें आती- जाती रहेंगी। बदलती रहेंगी या जमी रहेंगी। फ़िलहाल ठंड के दिन हैं। होंठ बड़बड़ा रहे हैं, जैसे बददुआ दे रहे हों! दाँत किटकिटा रहे हैं जैसे खाने को दौड़ रहे हों! …और हवा सांय- सांय कर रही है, जैसे अपने ही पहलू में बैठकर रो रही हो! कोई ख़ुशी नहीं है। कहने को ग़म भी नहीं ही है। एक चिंता है।

बस, एक ही… कि जीतेगा कौन? किसकी सरकार बनेगी? कौन उसे पटखनी देगा जो हम सबको पटखनी देता फिरता है? वो हारेगा या नहीं, जो हमारी चिंताओं, समस्याओं को किसी बदबूदार कूड़े में फेंकता रहता है। चाय की चुस्कियों और पकौड़ों की गर्मी के बीच बस यही चर्चा चलती रहती है। तीन दिसंबर तक हमारे पास और कोई काम ही कहाँ है?