भास्कर ओपिनियन- चुनाव: वे बिना जान- पहचान के गलियों में घुस आए हैं, घूरते हैं, फुसलाते भी हैं

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13 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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वे मेरे शहर में घुस आए हैं। बिना जान- पहचान के। बड़ी बेशर्मी से घूरते हैं। फिर फुसलाते भी हैं। गलियाँ जो पाँच साल से सोई हुई थीं, वे भी अब उनके पैरों की आहट से काँप उठी हैं। खुरदुरी सड़कें जो गड्ढों से आबाद रहती थीं, उनकी आहट भर से इतनी चिकनी- चुपड़ी हो चुकी हैं कि पैर रखने में डर लगता है। कहीं फिसल न जाएँ! वे नेता हैं। वोट चाहते हैं। सत्ता चाहते हैं। …

और भी बहुत कुछ। उनकी इच्छाएँ अपने दांत पैने कर रही हैं। वे कहते हैं – हमारे देश में ऊपर से नीचे तक सबकुछ बदलना चाहिए। मगर कुर्सी, जिस पर वे बैठे हैं और उसके नीचे की ज़मीन जिस पर उनकी कुर्सी डटी हुई है, वो वैसी ही रहनी चाहिए। इसी आस में, इसी तड़प में वे तरह- तरह के वादे करते फिरते हैं। कहते हैं- हम सड़क पर डोलती परछाइयों को ज़िंदगी दे देंगे!

बिजली के आने- जाने की कभी कोई चिंता मत करना, तुम्हारे खेतों, यहाँ तक कि बीहड़ों में भी चाँद लटका देंगे। और तो और तुम्हारे घर की खिड़कियों से जो छोटे- छोटे आकाश के टुकड़े दिखते हैं, अलग- अलग साइज़ के! अलग- अलग शक्लों के! इन सबको भी सीकर एक पूरा आकाश बना देंगे।

तुम हमें ज़मीन बख़्शो, हम तुम्हें आसमान देंगे। पूरा आसमान! हम जब घर पर नहीं होते तब भी वे चले आते हैं बिन बुलाए मेहमान की तरह। कभी न पूरे होने वाले वादों की थाली हमारे दरवाज़े की चौखट पर रख जाते हैं, जैसे पहले के वक्त के कुछ ख़ादिम, मुँह अंधेरे आकर चाय और बिस्कुट रख जाते थे।

हद तो तब हो जाती है जब इस चुनावी मौसम में समानता दिखाने की गरज से वे किसी के भी घर भोजन करने पहुँच जाते हैं। मन करता है कह दें वो सब कुछ, जो हमने भोगा है, इनके सत्ता में रहते हुए। … कि वे दिन कहाँ गए, जब हम तुम्हें देखकर जबरन मुस्कुराते थे, लेकिन तुम नाक- भवें सिकोड़ लेते थे। हमें नफ़रत भरी निगाह से घूरने की हद तक देखते थे। अफ़सोस, हम मजबूरन नमस्कार करने झुकते थे, तुमको और तुम्हारे आकाओं को, लेकिन तुम हम पर तब तक ही रहम करते थे, जब तक हम झुके होते थे।

आज हमारे घर की पूड़ियाँ चखने आए हो! प्यार जताने आए हो! पता है, तुम्हारी जात अलग है हमसे। फिर भी? तुम्हें मालूम है क्या? बड़े- पुरखे हमारे, एक ही जगह मुर्दे जलाने की इजाज़त भी नहीं देते थे। ये कौन सा जमाना है? ये कैसा चुनाव है? ये कैसा लालच है? वोट का! खोट का! चोट का! लेकिन ये नेता हमेशा से मोटी चमड़ी के होते हैं। वे इन तमाम बातों को लगभग दरकिनार करते हुए हमारे कंधे पर हाथ रखते हैं। हमें अपने कंधों पर उनका हाथ भारी लगता है।

निगाहें उनकी लालच भरी होती है लेकिन लगता है भीतर से उनके कोई गुर्रा रहा हो! …कि चिंघाड़ रहा हो! बब्बर शेर की तरह! लेकिन ऊपर से कितने लिजलिजे! जहां पब्लिक ख़ामोश हो, वे खिलखिलाकर हंसते हैं। जहां वे ताली बजाते हैं, बड़ी बेवजह लगती है।

उतनी ही बेवजह और कर्कश जितनी मरघट की हंसी। लाख लोग समझाते हैं उन्हें लेकिन वे समझने को तैयार नहीं हैं। हमें ही यह सोचकर चुप होना पड़ता है कि एक अंधे, बुजुर्ग को यह समझाने में पूरा दिन और पूरी रात क्यों खर्ज की जाए कि आख़िर अंधेरा दिखता कैसा है? दरअसल, इन नेताओं को तो सुबह और शाम और रात का कुछ पता ही नहीं है। वे अपनी आँखें तो खोल लेते हैं।

सुबह की किरणें भी उनसे होकर गुजरने लगती हैं, लेकिन उन्हें खबर ही नहीं होती कि सुबह हो चुकी है। उन्हें आदत है अपने आकाओं के हुक्म की! वे कहें तो ही सुबह! वे जब कहें तभी शाम या रात!

जहां तक हमारी हालत है उसे तो हम सब जानते ही हैं। अच्छी तरह। पूरे पाँच साल इन नेताओं की राह तकने में गुज़ार देते हैं और दूसरी बार फिर उन्हीं नेताओं को उन्हीं कंधों पर बैठाकर ढोने को तैयार हो जाते हैं। चुनाव के वक्त वे हमें जात- पात और धर्म- कर्म में उलझाए जाते हैं और हम बाक़ायदा उलझते भी जाते हैं। क्यों? हमें ही नहीं पता होता!

बहरहाल, शहर, क़स्बों और गाँवों में इन दिनों यही हालात हैं। वे नेता बड़ी फुर्ती और चुस्ती से आ – जा रहे हैं, जिन्होंने पाँच साल तक किसी को अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई थी। … और हम उनके पहली बार आने पर ही इतने और ऐसे ख़ुश हो रहे हैं जैसे किसी देवता का अवतरण हुआ हो! उन्हें भरोसा है- हमारा वोट उन्हीं को मिलेगा। मिलकर रहेगा।

लेकिन इस बार हम सब भी चतुर हैं। सुजान हैं। वोट उसी को देंगे जो सच्चा होगा। जीतेगा भी वही जो ईमानदार होगा। आख़िर लोकतंत्र की यही ख़ूबसूरती है। यही असल लोकतंत्र है। साफ- सुथरा और खुलेपन का पर्याय लोकतंत्र।