भास्कर ओपिनियन: अलग आदिवासी प्रदेश की माँग आखिर क्यों उठी?

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49 मिनट पहले

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मानगढ़ की महारैली में गुरुवार (18 जुलाई) को आदिवासियों को संबोधित करते हुए बांसवाड़ा सांसद राजकुमार रोत।

जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड बना। मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ बना, बिहार से अलग होकर झारखंड बना, आंध्र से अलग होकर तेलंगाना बना तो इसके कई कारण थे। भौगोलिक भी, आर्थिक भी और पिछड़ापन भी। ये सभी राज्य पहले भौगोलिक दृष्टि से बहुत विस्तृत थे। बहुत बड़े थे।

राज्य सरकारें चाहकर भी इतने बड़े प्रदेश के सभी भागों का समान रूप से विकास नहीं कर पाती थीं। यही वजह थी कि बड़े राज्यों को बाँटकर छोटा किया गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्यों को छोटा करने के बाद भी सरकारों ने उनका समान रूप से विकास किया? नहीं किया।

क्या झारखंड के हर इलाक़े को आप आज राँची जैसा डेवलप्ड कह सकते हैं? क्या छत्तीसगढ़ का चप्पा-चप्पा आज भी रायपुर की तरह विकसित कहा जा सकता है? क्या उत्तराखंड और तेलंगाना आज भी समान रूप से सरसब्ज है?

गलती किसकी है? राजनीतिक दलों की? या ये जिस वोट की राजनीति के बूते चल रहे हैं उसकी? या उन नेताओं की, जिन्हें जीतने के लिए आदिवासियों के वोट तो चाहिए पर वे उनके विकास के लिए कुछ नहीं करना चाहते। भले ही वे नेता खुद भी आदिवासी ही क्यों न हों!

मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात के कुछ ज़िलों को मिलाकर नए भील प्रदेश की माँग उठी है तो बाक़ी पार्टियाँ या सत्ताधारी दल इस माँग को यह कहकर ख़ारिज करने पर तुले हैं कि जाति के आधार पर अलग प्रदेश नहीं बनाया जा सकता।

सही है। लेकिन यह मामला केवल जाति का नहीं है। क्षेत्र का पिछड़ापन और इसके चलते शिक्षा के उजाले का वहाँ उस तरह नहीं पहुँच पाना, जिस तरह अन्य इलाक़ों में पहुँचा है, यह भी बहुत बड़ा कारण है। बल्कि कहना चाहिए कि यही सबसे बड़ा कारण है।

राजकुमार रोत जैसे युवाओं को जिताकर ये आदिवासी अब अपने क्षेत्र का विकास खुद करना चाहते हैं। अपने तरीक़े से करना चाहते हैं। वर्षों तक जन प्रतिनिधियों के अन्याय का शिकार होने और होते रहने के कारण जो ग़ुस्सा फूटता है, अलग आदिवासी प्रदेश की माँग वो ग़ुस्सा ही है।

दुर्भाग्य यह है कि हमारी राजनैतिक व्यवस्थाएँ और सत्ताएँ किसी जाति, समाज या समूह का ग़ुस्सा फूटने के इंतजार में बैठी रहती हैं। तब से पहले उस क्षेत्र या उस समूह के विकास के बारे में वे सोचते तक नहीं। ग़ुस्सा फूटना स्वाभाविक है।